पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३६७

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परजन सकेलि असीस गुनि निःसार इहि संसार हीं।
पद ईस अरचन देवि विक्टोरिया सुरपुर पथ गहीं॥

सोरठा


समाचार यह आय, हाहाकार मचाय अति।
भारत को अकुलाय, कियो अधिक आरत महा॥
पै लखि तुम कँह देव, केवल धार्‌यो धीर पुनि।
तुम उनमें नहिं भेव, समझि, सहज सन्तोष गहि॥

हरिगीत


जो समुद्र तासु तरंग सोइ, जो कनक कंकन सो अहैं।
जो मातु पितु सुत सो, विटप जो बीज सुइ सब कोउ कहैं॥
जो वै रहों सोइ आप तासों गुनहु सब समहीं चहै।
जो आस उनसों रही तब श्रीमान् सों सोइ सकल हैं॥

द्रुत विलम्बित


अधिक ही उनसों बरु आप तैं।
करत भारत आस हुलास तैं॥
नृपति राज विराजत रावरे।
न रहिहैं दुख सेस जुहैं अरे॥
समुझि आपु गए जिहि आइकै॥
निरखि भक्ति प्रजान अघाय कै॥
अब न क्यों तिनकी सुधि आइहै।
सकल भारत उन्नति पाइहै॥
प्रथमहीं निज बानि दयामयी।
जननि लों जग को दिखला दयी॥
समर पूअर बूअर बन्द कै।
अभय के धन बीसन कोटि दै॥