पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३५३

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रहे सदा ही एक रस, मन मेरे यह ध्यान।
कबहूँ चिन्ता आनि नहिँ, आवे कोऊ आन॥२४॥
बरसाने वारी सहित, बरसत रस इहि ओर।
जयति प्रेमघन सो सदा, मो मन मोहन मोर॥२५॥
राधा राधा रटत हीं, बाधा हटत हजार।
सिद्धि सकल लै प्रेमघन, पहुँचत नन्द कुमार॥२६॥
राधा राधा रट लगी, माधव माधव टेर।
सहित प्रेमघन परम सुख, सञ्चय साँझ सबेर॥२७॥
नवल भामिनी दामिनी, सहित सदा घनस्याम।
बरसि प्रेम पानिय हिय, हरित करहु अभिराम॥२८॥
सुभग एक रस नित नवल, सोभा अति अभिराम।
दया बारि बरसत रहै सदा सोई घनस्याम॥२९॥
नवल नील नीरद सुछबि, बृज युवती चित चोर।
मम जीवन धन प्रेमघन जै श्री नन्द किशोर॥३०॥
बरसि सरस रस प्रेमघन भक्ति भूमि हरियाय।
तोषि रसिक चातक रहै सदा सबै सुख दाय॥३१॥
गोचारन हित गोकुलहिं, आय बस्यो गोपाल।
रानी रमा बिसारि तजि, निज गोलोक विशाल॥३२॥
राधा राधा रट लगी, माधव माधव टेर।
दोउन के उर ध्यान तें, दुहुँ लोक सुख ढेर॥३३॥
श्री गौरी सुत गज बदन, गण नायक उर ध्याय।
एक रदन अध करन शुभ, मंगल करन मनाय॥३४॥
जयति भारती देवि कर, बीणा पुस्तक साज।
जासु जुगुल पद ध्यान सों, सिद्धि होत सब काज॥३५॥
श्री राधा राधा रमण, जुगुल चरन अरविन्द।
शमन सकल बाधा सरस, गुनि मन होहु मलिन्द॥३६॥
श्री राधा राधा रटत, हटत सकल दुख द्वन्द।
उमडत सुख को सिंधु उर, ध्यान धरत नद नन्द॥३७॥