पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३४३

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तऊ धरत उर धीर जानि अपनो वह छल बल।
जासों छुटि न सकत चतुर चाहक चित चंचल॥
वह नखरे चोंचले नाज़ अन्दाज़ बला के।
वह शीरीं गुफ्तार अजब सब ढंग अदा के॥
सदक़े सौ २ बार हुए लाखों हैं जिन पर।
दीवाना फिर कौन न होगा उन्हें देख कर॥
यों सोचती समझती है मन को समझाती।
परम भयंकर प्रेम जाल अपना फैलाती॥
फँस जाते हैं दाना जिसमेँ दाना पाकर।
बेदाना बेदाना दाड़िम सा मुँह बाकर॥
फँस दाम में जो बे दाम गुलाम हुए वह।
बन आशिक़ हर चलन प' उसके बाह! २ कह॥
आशिक़ वह जो गला काटने पर भी राज़ी।
मुन्शी मुल्ला मुफ्ती क़ाज़ी बनकर गाज़ी॥
इन सबके मन को बेढब है वह भड़काती।
निज वियोग संका की विरह पीर उपजाती॥
कहती,—यह औरत है अजब ख़बीस पुरानी।
चढ़ती जिस पर आती है हर रोज जवानी॥
गो इश्वे, ग़मज़े इसमें हैं नहीं ज़ियादा।
पर भोलापन करता है दिल को आमादा॥
गो सज धज रंगीन मिज़ाजी कब है आती।
मगर सादगी ही है इसकी आफ़त लाती॥
है यह मेरी सौत मुई मक्क़ारि ज़माना।
गाइब थी जो अब तक वह अब बेबाकाना—
शाही महलों से मुझको निकाल देने को।
आती है, खुद क़ब्ज़ा इन पर कर लेने को॥
पस, देखो हर्गिज़ यह इधर न आने पाये।
योंहीँ बाहर पड़ी निगोड़ी चक्कर खाये॥