पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३४

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नहिं कोऊ मूरख नहिं नृशंस नर नीच पापरत।
सुनि जिनकी करतूति होय स्वजनन को सिर नत ॥५०॥
जो कोउ मैं कछु दोष तऊ गुन की अधिकाई।
मिलि मयंक मैं ज्यों कलंक नहिं परत लखाई ॥५१॥
जगपति जनु निज दया भूरि भाजनं दिखरायो।
जगहित यह आदर्श विप्र कुल बिरचि बनायो॥५२॥
सब सुख सामग्री सम्पन्न गृहस्थ गुनागर।
धन जन सम्पत्ति सुगति मान मर्याद धुरन्धर॥५३॥

जन्मभूमि प्रेम

या बिधि सुख सुविधा समान सम्पन्न होय मन।
तऊ चाह सों चहत ताहि धौं क्यों अवलोकन॥५४॥
जन्म भूमि वह यदपि, तऊ सम्बन्ध न कछु अब ।
अपनो वा सो रह्यो, टि सो गयो कबै सब॥५५॥
और और ही ठौर भयो अब दो गृह अपनो।
तऊ लखत मन किह कारन वाही को सपनो॥५७।।
धवल धाम अभिराम, रम्य थल सकल सुखाकर।
बसत, चहत मन वा सूनो गृह निरखन सादर॥५७॥
रहे पुराने स्वजन इष्ट अरु मित्र न अब उत।
पै वा थल दरसन हूँ, मन मानत प्रमोद युत॥५८॥
यदपि न वह तालुका रह्यो अपने अधिकारन।
तऊ मचलि मन समुझत तिहि निज ही किहि कारन॥५९॥
समाधान या शंका को पर नेक विचारत।
सहजै मैं वै जात जगत गति ओर निहारत॥६०॥
जन्म भूमि सों नेह और ममता जग जीवन।
दियो प्रकृति जिहि कबहुँ न कोउ करि सकत उलंघन॥६१॥
पसु, पच्छिन हूँ मैं यह नियम लखात सदा जब।
मानव मन तब ताहि कौन विधि भूलि सकत कब॥६२॥