पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३३९

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पै वह यवन चक्र में निवसत रही निरन्तर। केवल सम्भाषन अरु कविता के अभ्यन्तर॥ लेख पारसी अच्छर अरु भाषा में केवल। राज काज गृह काजहु मैं होते उनके दल॥ जन साधारन प्रजा न पै उन सों अनुरागी। हिन्दी बोली बरन दुहुन की प्रेमन पागी॥ दिल्ली में बसि बनी रही यह सीधी सादी। आय लखनऊ गई कठिन सब्दन सों लादी। हाँ के लोग सदा प्रचलित भाषा में बोले। ह्यां निज मति अनुरूप विविध भाँतिन तिहि छोले। उन चाह्यो सब समुझे जामें उनकी भाषा॥ इनकी समझ न सके कोऊ ऐसी अभिलाषा॥ भरि भरि सदा सबद अरबी पारसी कठिनतर। उर्दू भाषा को जेठी पारसी दियो कर॥ रही तऊ यह भाषा पुस्तक ही के भीतर। पढ़े लिखे जन भाषतहू मिलि रहे परस्पर। पै ह्याँ के अधिवासी बोलत तिहि न कदाचित् । समुझि सकत नहिं नेक सुनत जाकहँ वै नित प्रति॥ रही न कोऊ भाषा की गिनती में यह तब । कुछ न पूछ ही रही यवन को राज रह्यो जब ॥ पै अँगरेजी राज पाय बढ़ि बहुत मुटानी। चेरी सों औचक ही यह बनि बैठी रानी। आधे भारत के सब न्याय भवन के भीतर। लगी चलावन राज काज सासनहिं निरन्तर॥ नवल गढ़े, अरु अंगरेजी आदिक बहु सबदन। सों भरिकै औरौ कठोर अरु कुटिल गई बन । बहु पुस्तक बहु भाषन सों बहु विषयन केरी। अनुबादित है गई, बनी त्यों नवल घनेरी॥ २२