पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३३८

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राज कर्मचारी गन विज्ञ न समझत जा कह। मढ़ प्रजा के तब आवै किहि भाँति समझ महँ। देत प्रजा इजहार गँवारी हिन्दी भाषत। मुनसी करि अनुवाद ताहि पारसी बनावत ॥ पुनि सुनि समुझि सकत नहिं जिहि वे दीन बिचारे। "समझि लियो" कहि देत सदा ही डर के मारे ॥ कारन याको यह पढ़े बिन जो नहिं आवत। पढ़े हुँ भिन्न भाषन सों मिलि कठिनाई ल्यावत। उर्दू नाम राज सेना बिपिनी की बोली। तिमिर लिंग बंसज नृप यवन संग जब, टोली॥ यवन जाति की भिन्न २ निवासी दिल्ली महँ। निज आवश्यक काजन हित सब सैनिक जन जहँ । दिल्ली वासी बनिकनि सों मिलि जुलि नित भाषत। टूटी फूटी हिन्दी संग कछु सबद मिलावत॥ निज २ भाषा हू के समुझ न लगे जाहि जन। इमि जो बोली बोली गई हाट कछु दिवसन॥ सो बिगरी हिन्दी भाषा उरदूइ-मुअल्ला॥ साहजहाँ के समय पुकारन लगे मुसल्ला॥

१. एक बार सेशन जज के इजलास में मैंने स्वयं देखा, कि एक जंगली कोल अपराधी से वकील सरकार से पूछा कि तुम्हारे ऊपर इलजाम दफ़ा ३०७ ताजीरात हिन्द का, यानी इक्तिदाम कत्ल का लगाया गया है, क्या तुमको उससे इक़बाल है ? उत्तर मिला "हाँ"। जज ने कहा, कि उसे फिर समझाओ। वकील ने कहा कि अमुक व्यक्ति को तुमने क़त्ल करने की नीयत से जहर शदीद पहुँचाया? फिर कहा "हाँ"। तब फिर जज ने चपरासी से समझाने को कहा। और जब उसने कहा कि फ़लाने के तूं मारि डार के खातिर लाठी मारे रह्यः कि नाही ? तब उसने समझकर "नाही" कहा। यदि जज ऐसा धीर और सुचतुर न्याई न होता तो वह बिचारा व्यर्थ ही कठिन दण्ड का भागी हुआ था।