लिखत पारसी रहे कचहरिन बहुत दिनन सन।
तेई राज सेवक लहिकै अनुसासन नूतन॥
जहँ भाषा संग अच्छर हू बदले इक बारहिं।
तहँ बहु लेखकहू बदले लिखि सके जौन नहिं॥
नव बरनहिं नव भाषा संग नव लेखक आये।
चले बरन भाषा सँग तहँ बिन कछु स्रम पाये॥
इत भागनि सों भाषा ही बदली नहिं अच्छर।
दोऊ सुभावहि सों विरुद्ध सहजहिं अति दुष्कर॥
तासों फल विपरीत भयो औरहु अचरज मय।
बदल्यो इन अच्छरन भ्रष्ट भाषा करि अतिसय॥
सोई पारसी लेखक लोग सोई बरनन मैं।
सोई सबद सोइ रीति भरत निज निज लेखन मैं॥
मिलि मुन्सी मोलबी बनायो इहि मुगलानी।
हिन्दी भाषा जो न जाय कोउ विधि पहिचानी॥
निज विद्या अधिकार विज्ञता दिखरावन हित।
लहन लेख लालित्य कहन मै चोरन हित चित॥
लगे पारसी अरबी सबद अधिक नित मेलन।
रह्यो पारसी उर्दू बीच कृपा तजि भेद न॥
अरु पुनि इन अच्छरन सबद दूजी भाषा के।
लिखन कठिन अति[१] पठन असम्भव सब विधि थाके॥
- ↑ शकुन्तला नाटक के दो उर्दू अनुवादकों ने विवश हो कण्व को कन और माढव्य को माधो लिखा ऐसे ही जिन शब्दों के लिखने में कठिनता होती प्रायः उसका रूप बदल देते जैसे ब्राह्मण को बरहमन, व्यापार को ब्योपार। स्कूल को इस्कूल, स्टेशन को इस्टेशन, ज्वाइण्ट मैजिस्ट्रेट को जन्ट मजस्टरेट, स्टाम्प को इस्टाम्प इत्यादि। ख़ालिक़बारी के चाल की एक मसन्वी "अल्फ़ाज अँगरेज़" नामक मुन्शी ज्वालानाथ ने बेगम भूपाल की सहायता से उर्दू अक्षरों में बनाई है, जिसमें उनकी और बेगम साहिबा को भी पूरी उपाधि अँगरेज़ी शब्दों के आने से