निज भाषा को सबद लिखो पढ़ि जात न जामैं।
पर भाषा को कहौ पढ़े कैसे कोउ तामै॥
लिख्यो हकीम औषधी मैं 'आलू बोखारा'।
उल्लू बनो मोलवी पढ़ि 'उल्लू बेचारा'॥
साहिब 'किस्ती' चही पठाई मुनसी 'कसबी'।
'नमक' पठायो, भई 'तमस्सुक' की जब तलबी॥
पढ़त 'सुनार' 'सितार' 'किताब' 'कबाब' बनावत।
'दुआ' देत हूँ 'दगा' देन को दोष लगावत॥
मेम साहिबा 'बड़े बड़े मोती' चाह्यो जब।
'बड़ी बड़ी मूली' पठवायी तसिल्दार तब॥
उदाहरन कोउ कहँ लगि याके सकै गनाई॥
एकहु सबद न एक भाँति जब जात पढ़ाई॥
दस औ बीस भाँति सों तौ पढ़ि जात घनेरे।
पढ़े हजार[१] प्रकारहु सों जाते बहुतेरे॥
जेर, जबर अरु पेस, स्वरन को काम चलावत।
बिन्दी की भूलनि सौ सौ बिधि भेद बनावत॥
चारि प्रकार जकार, सकार, अकार, तीन बिधि।
होत हकार, तकार, यकार, उभय बिधि छल निधि॥
कौन सबद केहि बरन लिखे सों सुद्ध कहावत।
याको नियम न कोऊ लिखित लेखहिं लखि आवत॥
कोऊ पारसी बरन, कोऊ अरबी के बाजैं।
टेढ़े मेढ़े अतिसय सर्पाकृति से राजैं॥
साँचे मैं ढलि सके ठीक अजहूँ लौं जो नहिं।
लिखि लिखि पत्थरहीं पै छपत लखौ किन सहजहिं॥
अरबी, तुरकी, तथा पारसी, हिन्दी सानी।
अँगरेजी, संस्कृत मिली भाषा मुगलानी॥
- ↑ भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने फारसी अक्षरों में लिखे हुए 'सर' शब्द को १००० प्रकार से पढ़ा जाना सिद्ध किया है।