- २९६ जानि सुरभि आगमन दसा उपबन पर तेरे। अतिसय आनँद मगन विवुध पिक बृन्द घनेरे॥ करि कलरव कोलाहल लीला विविध लखाये। देखि जाहि सब अचरज सों बोले चकराये॥ आज कहा आनन्द उमड़ि सो रहयो चहूँ दिसि। पश्चिम उत्तर देस अवध बिहँसत सो किहि मिसि ॥ ईति भीति अरु रोग सोग दुष्काल दबाई। महँगी सों मन मलिन प्रजा सब दुख बिसराई। हरखानी सी आज कहा घूमत इतरानी। अतिहि अपूरब अनुपम सुख सों मानहुँ सानी॥ एक एक सों मिलत मिलत गर लागि परस्पर। जय ! जय ! मंगल! मंगल! सोर मचाय निरंतर॥ छोड़त नहिं गर लगि कहत-"धनि भाग हमारे। बहु दिन पर हे मित्र! भये हम साँच सुखारे॥ धन्य घरी यह आज! बड़े भागिन सों आई। परम उचित जु परस्पर मिलि हम देहि बधाई। जाकी सपनहुँ आस रही नाहीं मन सोचत। सोई सुख को साज आज इन आँखनि दीखत ॥ धन्य धन्य जगदीस धन्य करुना बरुनालय। सुखी कीन हम भारतीन तुम आज सुनिश्चय ॥ राज महरानी विक्टोरिया तिहारो। जामै न्यायहि होत अन्त जब जात बिचारो॥ नित प्रति उन्नति होति प्रजा सुख सामग्री की विद्या, ज्ञान, सान्ति, स्वच्छन्दतादि विधि नीकी॥ पावत साँचो स्वत्व सबै चाही जो जा कहँ। राम राज सम कहैं तऊ अनुचित नहिं या महँ॥ धन्य लाट करजन ! परजन मन रञ्जनहारे। राजत राज न्याय जाके सुविचार सहारे॥ धन्य
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३२५
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