आनन्द बधाई रोला छन्द आज अरी यह घरी बड़े भागिन सों आई। देव नागरी देवि देहुँ जो तोहि बधाई। निरखत हीन अपूरब पूरब दसा तिहारी। सोचि सोचि सुभचिन्तक तेरे होय दुखारी॥ हा हा खाय बीनती बहु बिधि करत रहे नित। पै न भूलिहूँ कोऊ कबहुँ वा दीनो चित॥ वै बिहीन उत्साह बैठि सब रहे मारि मन। अनहोनी गुनि उन्नति तेरी; तऊ अनेकन- सुवन तेरे बहु भाँति जतन मैं लगे निरन्तर। करत रहे उद्योग हटे नहिं कसिकै परिकर॥ यदपि आस दृढ़ रही नाहिं उनहुँन कहँ ऐसी। बेगि विजय बहु दिन पीछे पाई तुम जैसी॥ राज सभा सों अलग कई सौ बरस बितावत। दीन प्रवीन कुटीन बीच सोभा सरसावत॥ बरसावत रस रही ज्ञान, हरिभक्ति, धरम नित। सिच्छा अरु साहित्य सुधा सम्वाद आदि इत॥ कियो न बदन मलीन पीन बरु होत निरन्तर। रही धीरता धारि ईस इच्छा पर निरभर ।। करि राखी अधिकार लाभ की आस अकेली। फूली ताही सों सहजहिं आसा की बेली॥ चकित भये लखि जाहि आर्य सन्तान मधुप गन। धन्यवाद गुजार मचायो मिलि प्रमुदित मन॥ २१
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३२४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।