पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३१९

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२९० " भारत के धन अन्न और उद्यम व्यापारहिँ। रच्छहु, बृद्धि करहु साँचे उन्नति आधारहिँ॥ वरन भेद, मतभेद, न्याय को भेद मिटावहु । पच्छपात, अन्याय बचे जे तिनहिँ निबारहु॥ पूरब सासन समय साठ वत्सर को भारी। पाय भयो कृत कृत्य बृटेन अति कृपा तिहारी॥ भारत की बारी आवै अब अति सुखदाई। उत्तर सासन या हरिक जुबिली सो पाई। करहु आज सों राज आप केवल भारत हित। केवल भारत के हित साधन मैं दीनै चित। पूरन मानव आयु लहौ तुम भारत भागनि। पूरन भारतीन की करत सकल सुख साधनि । उमड़े भारत में सुख, सम्पति, धन, विद्या, बल। धर्म, सुनीति, सुमति, उछाह व्यापार ज्ञान भल ॥ तेरे सुखद राज की कीरति रहै अटल इत। धर्म, राज, रघु, राम प्रजा हिय मैं जिमि अंकित ॥ आर्य लता मुरझत दियो तुमसुनीति को बारि। ई-श्वर नित हित आप को यासों कियो बिचारि॥ एस्-आसीसत चित्त सों कविवर बदरीनाथ ॥ एस्-जुबली तुव और इक देखें हम सुख साथ ॥ (सवैया) ईसुकृपा सों बरीसु पचास कियो तुम राजु सवै सुखदाई। आरत भारतहू पैं कृपाकरि आपु कलेश को लेश नसाई। बद्रीनरायनजू नरभारत यागुनि देत महा हरखाई। श्री विक्टोरिया देवी तुमै यह मंगलमय जुबिली की बधाई !!!