पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३१८

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- २८९ किधौं चहत हिय चीरि देवि! तुम कहँ दिखरावन। उर अन्तर की राज भक्ति यह सहज सुभायन । साधारन भूकम्प जाहि कारन विन जाने। कहैं लोग विज्ञान आदि मत मानि पुराने ॥ कै तुव हरष हरषि यह विहँसि उठी ठठाय के करत निछावरि बहु गृह भूषन गन गिराय के॥ होय जु कछु कारन सो तो वहई जिय जानत। पै हम तो बस निश्चय एक यही अनुमानत लखि तुव सुखदानी रानी को आनद भारी। आनन्दित कै काँपत भारत भूमी प्यारी॥ जब याके सुत सबै भये इहि छन आनन्दित । होय भला तब यह क्यों नहिँ अतिसय प्रसन्न चित॥ निश्चय सुभ अवसर यह हम सब कहँ सुखदायक। जो आनन्द मनावें हम, है वाके लायक ॥ देहिँ जु कछु बकसीस आप, लायक यह वाके। माँगै जो हम, लायक यह देबे के ताके॥ चहत न हम कछु और, दया चाहत इतनी बस। छूटै दुख हमरे, बाढ़े जासों तुमरो जस॥ जिहि ममत्व अरु जिहि प्रकार सौ ग्रेट बृटेन पर। कियो राज तुम अब लगि दया दिखाय निरन्तर। ताही विधि, ताही ममत्व तिहि दया भाव सन। अब सों राजहु भारत पर दै और अधिक मन। कीनी सब प्रकार जिमि ग्रेट बृटेन की उन्नति तैसहिँ भारत की करियै भरि कै सुख सम्पति॥ वाकी प्रजा समान स्वत्व, आयुध अधिकारहिँ। विद्या, कला, नीति, विज्ञान, प्रबन्ध विचारहिँ॥ हम भारत वासिन कँह देहु दया करि, देवी। उभय प्रजा सम होहिं सुखी, सम सासन सेवी