२८८ - मानहानि अनुमानि हहरि यह थर थर काँपत। कहा सोऊ कछु थिर न सकत करि निज मत । कै तुव सासन समय भेद लखि भाग देस गति। जामै ग्रेट बृटेन कीन्यो अपनी अति उन्नति ॥ भयो रंक सो राव संक जग मैं थाप्यो जिन। भरयो भूरि धन, बल, विद्या, गुन, कला क्लेस बिन॥ जाकी प्रजा मान, अभिमान' भरी सुख सम्पति। सों प्रफुलित मन विहरत जानत जगत हीन मति॥ अरु पुनि वाही समय बीच निरखति गति अपनी। दीन हीन हीं बनी बिलखि भारत की अवनी॥ काँपि काँपि यह लेत उसास होय अति कातर। जानि दैव प्रतिकूल आनि उर मैं विसेष डर॥ साठ बरस की आस निरासा करि जनु मानी। अरु पुनि दयावती तुम सी अनहोनी रानी॥ के सासन सुविसाल बीच जब गयो दुःख नहिँ। तब हरिद को नहिं जानत अब सेष कलेसहिँ॥ यह गुनि के यह आपुहि अपनो ही तन ताड़ति। आँसुन की झरि लावति औ सिर छार उड़ावति॥ कैधौं अपनी उन्नत पूरब दसा बिचारी। रहयो प्रताप जब याको फैल्यो दिसि चारी॥ अजहूँ लौ आसृत जग याको रहयो बराबर। काहू की या कृतज्ञता रही न तिल भर॥ सो दुर्दैव प्रभाय हाय ! बनि गयो भिखारी। जग सो भिच्छा लियो खोय भरमाला भारी॥ पाय और सों दान प्रान राख्यो यह अबके। खोय मान अभिमानं कान करि सनमुख सबके। चहत न सो भारत रहि कोऊ सँग आँख मिलावन। ढाढ़ मारि भू फारि चहत पाताल सिधावन ॥
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३१७
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