पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३०७

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- २७८ भारत राज भोग की जुबिली होय तिहारी। ताकी हीरक जुबिली होय अधिक सुखकारी॥ भारत साम्राज्य की जुबिली तव पुनि होवै। ताकी हीरक जुबिली है सब संसय खोवै॥ मानव पूरन आयु सहित यह जुबिली चारो। को सुख भोगौ तुम, करि भारत देस सुखारो॥ जब इक अंस असीस ईस दीनी साँची कर। तब पूरन पूरन की आसा होत अधिकतर॥ यासों अतिसय हरष हिये हमरे मनभावनि। यह जुबिली है और चार जुबिली की ल्यावनि ॥ यदपि सहजहीं यह हीरक जुबिली अति प्यारी। लह्यो न जेहि नृप कोउ बिलायत शासनकारी॥ नहिं कोउ भारत राज बिदेसी देख्यो यह दिन। इतो राज इतने दिन सुख सों कब भोग्यो किन॥ धन्य तिहारो भाग, नाहिँ यामै कछु संसय। नहिं तो सम नृप और प्रजा हितकारी निश्चय॥ तब तेरे सुख मैं जो तेरी प्रजा सुखारी। होय, भला तो अचरज की है बात' कहा री॥ अरु पुनि साँचे राजभक्त भारत वासिन के। रहै हरष की सीमा किमि? नृप ही बल जिनके॥ यही हेतु आनन्द मगन सों भासत भारत। ईति भीति अरु रोग, सोग सों यद्यपि आरत ॥ पर्यो अकाल कराल चहूँ दिसि महा भयंकर। जस नहिँ देख्यो, सुन्यो कंबहुँ कोउ भारतीय नर॥ कहैं अन्न की कौन कथा? जब कन्द, मूल, फल। फूल साग अरु पात भयो दुरलभ इन कहँ भल॥ हरे हरे वन तृन चरि सूखे बीज घास के खाय' अघाय न सके किये थल स्वच्छ पास के॥