२२० - लखि तुच्छता और सठता घन प्रेम, हिये न व्यथा उपजावनो है। अब तो नर नीचन बीचन मै, बसि के यह बैस वितावनो है। झलकि निहारि हारि मनहि लग्यो जो सग छूटत छिनत मानो मनि बिन व्याल भो घेरे प्रेमघन रहै नेरे तबही सो मेरे, देखत ही धावै आवै निपट निहाल भो॥ चारो ओर चरचा चलत अब आली याको, सुनि सुनि सोचि सोचि मो मन कमाल भो। हेरी वाहि वादिन जो नेक हँसि हेरी सो तो, हाय वा गुपाल मेरे जिय को जवाल भो॥ आब महताब झुकी झॉकन झरोखे नेक, चितै चित प्रेमिन लगाय देत दावा सी। अब हूँ दुरत अग दीपति दुराय फेरि, प्रगटे करत गढ धीर पर धावा सी॥ प्रेमघन रस बरसाय लचकाय लक, चकित मृगी सी थिरकन देत कावासी। एरी मृग नैननि गुरेरि भौहन मुरेरि, भागी कित जात हाय छलकि छलावा सी॥ सिसकीन सुधा बरसावै मनौ, मुरि मारत मोहनी मूठ भरी। कर दोऊ दबाय के नीबी उरोजन, जघन जोरि जनौ घन प्रेम घिरी पिय अक मै आय, ससक मयक मुखी निखरी। जकरी॥
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२५१
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