२१३ लागी मोहिं चाह की चुडैल कुछ ऐसी भगी, भभरि के जासों लाज गुरजन वृन्द की। प्रेमघन प्रेम मदिरा की मतवारी होय, खोय बुधि चेली भई में मनोज रिन्द की। भूल्यो उभय लोक सोक बीर जवहीं सो आनि, बसी मन मेरे बाँकी मूरति गुबिन्द की॥ जाकी आय सुधि बुधि बिकल बनाय देत, कुंजनि की कोऊ पतिया जो कहूँ खरकी। रोम उलहत मन बूडै बिथा बारिद मैं, प्रेमघन बरसि बहावै उर घर की। जकरी हूँ लाज की जंजीरन सों ऐंची लेय, मानो मीन वारी बंसी धीमर के कर की। धरकी हमारी फेरि छतिया कहूं धौं बीर, बाजी हाय बंसी फेरि वाही बाजीगर की। डारै मोहनी की मूठ मीठे सुर को सुनाय, हरै बुधि बस के सुजान नारी नर की। मारै तान जब मार मारी प्रान व्याकुल के, चितहि उचाट सुधि भूलै देहुं घर की। आकरषै प्रेमघन अपने ही ओर त्यों, विद्वेषै मन बैरी के चबाइनै नगर की। जोर जादूगर से कैसे जादू को जनाय हाय, बाजी कहूं बंसी फेरि वाही बाजीगर की। कुच शम्भू कहैं कवि दाडिम श्रीफल, कंज कली पै अली छबिया है।
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२४४
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