पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२४२

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- २११ किधौं जनु दामिनि मंडल है, ससि घेरत कैसी सुसोभित होति ।। थकी बिपरीत की जीत रन, न सकी स्रम सों सुकुमारि अंगेज। लियो अवलम्ब अनूपम आनन, सजी सेज॥ लगी बरसै सुखमा धन प्रेम, मनो लरि लाख गुनो लहि तेज। धरे सरि के तर राहु को सोय, रह्यो है कलानिधि काढ़ि करेज॥ लाल तकीयन 4 अधर न मन्द महा मधु माधुरी कन्द, नबात न बात की आवै विचार में। ईख लीची नहीं सरदा, नहिं जामुन सेब के तूत हजार मैं चूसि लह्यो रसना प्रेम, जो वा मधुराधर के सुधासार मैं। सो रस के रस को नहिं लेसहु, पाइये आम अंगूर अनार मैं॥ घन नेत्र अनुराग पराग भरे मकरन्द लौं, लाज लहे छबि छाजत हैं। पलकै दल मैं जनु पूतली मत्त, मलिन्द परे सम साजत हैं। घन प्रेम रसै बरसै सुचि सील, सुगन्ध मनोहर भ्राजत