पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२४०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२०९ भुजा छबि त्यों घनप्रेम लखो, दियो बास उदास कै ताल मृणाल। लगाय मसी मुख डोलत मंद सो, चन्द बिलोकत भाल बिसाल। यमपास मुख मंडल पै कल कुन्तल को, कहि रेसम के सम दूसत हैं। अलि चौर सिवार औ राहु वृथा, मिसाल मसूसत हैं॥ कवि भूलै सबै धन प्रेम सुनो, सुधा सम्पति को मिलि मूसत हैं। जनु सारद पूनव के निसि मैं, जुरि व्याल सबै ससि चूसत हैं। पीन पयोधर शम्भु नहीं कल, काम कमान ध्रुवै छबि छाजत। है विपरीत जु नासिका कीर, लखे अलकावलि जालन भाजत ॥ देखिये तो घनप्रेम दोऊ दृग, आनन मैं कहिबे की न हाजत । है जहँ पूरन इन्दु प्रकास, विकास तहीं अरविन्द विराजत॥ कुन्दन सी दमकै धुति देह, सुनीलम सी अलकावलि जो हैं। लाल से लाल भरे अधरामृत, दन्त सुहीरन सो सजि सोहैं। रन्त मई रमनी लखि के, घनप्रेम न जो प्रगटै अस को हैं। बाल प्रबालन सी अंगुरी, तिन मैं नख मोतिन से मन मोहैं। खम्भ खरे कदली के जुरे जुग, जाहि चित चित जात लुभाई।