पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२३६

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२०५ वरसावत सो रस राग मलार, अलापत मंजु कलामिनियाँ॥ बितिहँ किहि भातिन सावन की, यह कारी भयंकर जामिनियाँ। घन प्रेम पिया नहिं आये दसौ दिसितै दमकै दुरि दामिनियाँ । नाच रहे मन मोद भरे, कल कुंज करें किलकार कलापी। गाय रहे मधुरे स्वर चातक, मारन मन्त्र मनोज के जापी॥ झिल्लियाँ यों झनकारि कहैं, मन मैं घन प्रेम पसारि प्रतापी। आय गयो विरही जन के बध काज अरे यह पावस पापी॥ चंचला चोखी कृपान बनी, अवली बगुलान की सैन रही जुर । साँरग साँरग है सुर नायक, जय धुनि दादुर मोरन' को सुर॥ वे घन प्रेम पगी बिरहीन पैं, व्याज लिये बरसा अति आतुर। आवत धावत बीरता बारि, भरे बदरा ये अनंग बहादुर॥ जेवर जराऊ जोति जीगन जनात किल, किंकिनी लौं कूकनि मयूरन की डार-डार। सारी स्यामताई पै किनारी चंचला की लखि, प्रेमी चातकन गन दीनो मन वार वार॥