. १७४ बीच। अथवा जो कर्तव्य तुव रही जगत के सो सब करि तू चल बस्यो रह्यो व्याज इक मीच ॥११॥ हिन्दी की उन्नति करत कै तू होय निरास। हार मानि हरिचन्द तू कीनो अनत निवास ॥९२॥ हिन्दू के हित की रही यहाँ नहीं जब आस। तब तू पहुँच्यो धाय धौं श्री जगदीश्वर पास ॥९३॥ अथवा ज्यौं जगत को रहो खरो तू हाय। तैसे हरि प्रिय जानि तोहि बेगर्हि लियो बुलाय॥९४॥ मैं नहिं जानत ठीक है इनमें कारन कौन। तू ही आय बताय दै सत्य भेद हो जौन ॥९५॥ काह कहूँ कहि जात नहिं लखि तेरो यह हाल। कुटिल काल धिक तोहिं यह कीनो कौन कुचाल॥९६॥ धिक सम्वत उनईस सौ इकतालिस जो जात। चलत चलत हिन्दुन हिये दियो कठिन आघात ॥९॥ धिक साँचहु ऋतु शिशिर जिहिं कहत जगत पतझार। अव के भारत विपिन तौ आवत दीन उजार ॥९८॥ माघ मास धिक तोहि अरु कृष्ण पक्ष धिक तोहि। जिन दीनो या जगत सो श्री हरिचन्द विछोहि ॥९९॥ सकल अमंगल मूल धिक तो कँह मंगलवार। धिक षष्ठी तिथि तोहिं जो कियो अमित अपकार ॥१०॥ धिक धिक पौने दस घड़ी बिती अरी वह रात। जो न अड़ी एकौ घड़ी भारतेन्दु के जात ॥१०१॥ धिक वह पल अरु विपल जब अस्त भयो वह चन्द। श्री हरि चन्द अमन्द सो जो हरिचन्द दुचन्द ॥१०२॥ जाके अथये रुदत सब हिन्दू जाति चकोर। कोलाहल बाढ्यो महा भारत में चहुँ ओर ॥१०३॥
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२०४
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