१७० गुरु समान जो विज्ञवर दाता करन समान। रूप अनूपम जासु लखि होत मदन अनुमान ॥३५।। अपकारी जे देस के तृण कुल अग्नि समान। धर्म विरोधी जन लखत जाहि काल अनुमान ॥३६॥ खल मुख निज निन्दा सुनत हँसि साधन जो मौन। सहनशील इमि जगत मैं पृथ्वी को तज कौन ॥३७॥ सतपथ गामी जो रह्यो साँचहु धर्म समान। विपत काल धीरज धरन सिन्धु समान सुजान ॥३८॥ चन्द सरिस प्रिय लखनि मैं तिहि सम सुयश प्रकाश। दीपति दीनी जिन अमल या भारत आकाश ॥३९॥ जनक सरिस दुहुँ लोक के कारज मैं लवलीन। नारद लौं हरि भक्ति या जग दिखाय जो दीन ॥४०॥ परहित साधन में रह्यौ राज दधीच समान। सो किन लोमस लौं भयो चिरजीवीहु सुजान॥४१॥ सुन्दरता के सुमन को 'खासो हाय मलिन्द। रस के सरवर को रह्यो जो प्रफुलित अरविन्द ॥४२॥ सज्जनता को सिन्धु सो सूखि गयो क्यों हाय। शैल शीलता को ढह्यो ढूँढेहू न लखाय ॥४३॥ प्रीतिपात्र गन के भये सत्य भाग्य अति मन्द। चन्द अमन्द समान सो अथै गयो हरिचन्द ॥४४॥ सत्य मित्रता आज सो जग मैं रही न हाय। ना तो नातो नेह को देखे कहूँ लखाय ॥४५॥ हाय ! प्रेम को आज सो बन्द भयो टकसाल। हाय ! रसिकता मानसर को उड़ि गयो मराल॥४६॥ स्वच्छ हृदय दरपन गयो काल शिला ते टूटि। मटका प्रेम खरो भरो अरे गयो क्यों फूटि ॥४७॥ सत्य धर्म को दधकतो बुझि सो गयो कृशानु। साचहुँ सत्य उदारता को तो अथयो भानु ॥४८॥ .
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२००
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