और अब इन्हें मिरजापुर के दुकान का कार्य-भार सँभालना पड़ा। आप के पिता ने आपको मिरजापूर स्थित पाठशाला का प्रबन्ध भी दे दिया। स्वामी दयानन्द जी का अब इनका पूर्ण साथ हो गया जिसके फलस्वरूप आपने नव जागरण के भावों को अपने काव्य में प्रतिष्ठित किया है।
उर्दू की बहरै आपको बहुत प्रिय थीं, आपने अपने विचार से
"यार के कानों में दो झूमके,
झूमके लेते बोसे चूमके।"
का भावानुवाद करके पण्डित रामानन्द जी जो इनको संस्कृत पढ़ाते थे इस प्रकार सुनाया।
"गोलन कपोलन पै लोलकन साथ लै कै,
झूमि झूमि झूमि मुख चूमि चूमि लेत॥"
(ये आपकी प्रथम पंक्तियाँ हैं।)
पण्डित जी बहुत प्रसन्न हुए और आप को कविता लिखने के लिए प्रोत्साहन दिया। अब प्रेमघन जी ने भी कविता लिखना प्रारभ किया।
आपके पिताजी मिरजापूर का कार्य इन पर छोड़ कर स्वयं अयोध्या जी चले आये, अब प्रेमघन जी अकेले वहाँ का कार्य भार देखने लगे। धीरे-धीरे आप में रईसी और आरामतलबी ने प्रवेश किया। इष्ट-मित्रों का जमघट लगने लगा। शतरंज, गंजीफे, संगीत विनोद तथा आमोद-प्रमोद में आपने समय बिताना प्रारम्भ कर दिया।
कवितायें लिखना, सुनना, सुनाना, स्वयं गीतों को लिखना और उसको सुनाना, सुनाने वालों को इनाम देना उनके इन्द्र के अखाड़े में हुआ करता था। इसी बीच आपका भारतेन्दु से भी परिचय हुआ, अब क्या था। "खूब बन बैठेगी मिल बैठेंगे दीवाने दो"....की कहावत चरितार्थ हुई। ..
आपने अब सभा सोसाइटियों को खोलना, उनमें जाना आना भी प्रारम्भ कर दिया। मिरजापूर के पं० इन्द्रनारायण शैगल, महन्त जयराम गिरि, वामनाचार्य इत्यादि प्रमुख थे। साहित्यिकों में पं० प्रतापनारायण मिश्र, पं० अम्बिकादत्त व्यास, बाबू रामकृष्ण वर्मा, पं० गोपीनाथ पाठक, बाबू बालमुकुन्द गुप्त, बा० राधाकृष्ण दास एवं श्री कृष्णदेवशरण सिंह प्रमुख थे। इसी बीच सम्वत् १९३८ में आपने आनन्द कादम्बिनी नाम मासिक पत्रिका को निकाला। इस समय तक कवि वचन सुधा आदि का प्रकाशन भारतेन्दु ने प्रारम्भ कर दिया था। बीच में आनन्द कादम्बिनी बन्द हो गई और सम्वत् १९४२ में पत्रिका का फिर प्रादुर्भाव हुआ। इसी समय आचार्य पण्डित रामचन्द्र शुक्ल जो मिरजापूर के मिशन हाई स्कूल में ड्राइंग