बहु टॅगि रही हाँड़ी नाद जित वहु रंग अरु बहु मोल की। चित्र परम विचित्र कारीगरी सहित सुढंग की ॥६१॥ सुविशाल दर्पन स्वर्ण चौखट जड़े भीतन बहु सजे। ताखन खिलौने धरेबहु अनमोल जनु चाहत भजे ॥ अँह कनक पिँजरे टॅगे पंछी विविध बोलैं बोलियाँ। गावत कोऊ बतरात कोउ कोउ करत किलकि ठठोलियाँ ॥६२॥ आगे सबन के शुभ सुमन · उद्यान शोभा दै रहे। जिन लता द्रुम पै भ्रमर गन गुंजार नित प्रति के रहे। जिन चहूँ ओरन बीच अजिर महान विस्तृत सोहतो। जा मध्य मंडप उच्च अति सुविशाल बनि मन मोहतो॥६३॥ फहरत पताके जितै रंग विरंग विविधि प्रकार हैं। कदलीन के खंभे सदल बँधि रहे .जित प्रति द्वार हैं। जा मध्य लाल वितान तनि मखमली शोभा दै रहयो । सह काम जरदोजी जवाहिर जो जगमग कै रहयो ॥६४॥ जा छोर झालर झूलती चहुँ ओर वर मोतीन की। लहि चोब चामीकर रुचिर मनिमय कनक कलसीन की। त्यों बीच सुन्दर बिछे सोहैं. रेसमी कालीन हैं। कमखाब के परदे हरे छवि रहे छाय · नवीन हैं ॥६५॥ [असमाप्त नोट--प्रेमघन जी इस काव्य को इसी स्थान तक लिख सके थे। १९७२ में उन्होंने यहाँ तक लिख कर बाद में पूरा करने के लिए छोड़ दिया था; पर दुर्भाग्य- मिलिवान जा.मका
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१३३
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