पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१३०

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धनि धन्य वे वृज गोपिका रसराज जिन इन संग में।
राँची रही अभिमान भीनी भूरि भाग उमंग में॥४०॥
सोये रहे हैं भाग अबलौं देवकी बसुदेव के।
जागे रहे इन सबन के बस भटू भावी भेव के॥
अब जाग्यो उनके संग हम सब को लखातो आज सों।
इन सबन को सोयो अवसि इत दोऊ आवन व्याज सों॥४१॥
दिन एक सें बीतत बराबर नहिं कोऊ के नित्य हैं।
जो आज सुख सों सोवतो लहि सकल सुख साहित्य हैं।
कल उन्हें बेकल देखियत बेकल परे जे आज हैं।
उनही न कल जो देखिये लखि परत सह सुख साज है॥४२॥
विलखत सदा ही देवकी बसुदेव के दिन हैं कटे।
अब तो परत है जान जनु दुख दिवस उनके हैं हटे।
अब ईस करुना कर उन्हें सुख देय करुना कर सखी।
अरि हीन है सम्पत्ति सुत वे लहैं पुनि पर घर रखी॥४३॥
लखि परत लच्छन ऐसही जो सोचि नेक विचारिये।
चिर दुखित मथुरापुरी विहँसत आज जिनहिं निहारिये॥
दुख दुसह टारन आगमन कारन इनहि को है अली।
ह्वै रहयो मंगल साज प्रति घर आज निरखि गली गली॥४४॥
हो कंस को विध्वंस यह सब के हिये की चाह है॥
जाके बिना नहि प्रजागन को कैसहूँ निर्वाह है।
कहि सकै को ये गुप्त बातें कौन विधि सब जानि के।
आचार मंगल कर रहीं सब प्रजाहित हिय मानि के॥४५॥
यों नगर निरखत सुनत स्वागत सोर संकल प्रजानि के।
पहुँचे सकल गोपाल बालन सखा सँग हरि आनि के॥
लखि राज महल विशाल शोभा ग्वाल बाल सुहावनी।
जकि से रहे चकि सबै दीखी ही न जस कबहूँ बनी॥४६॥
ऊँची अटारी की कतारी गगन चुम्बित राजती।
शिखर जिनके कनक कलसन की अवलि छबि छाजती॥