पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१२७

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सुनि आज ते वसुदेव सुत को आगमन वृज तैं इतै।
नृप कंस के विध्वन्स हित सब प्रजा जन हर्षित चितै॥१९॥
तकि रहे तिनकी बाट नर निज द्वार नारि अटा चढ़ीं।
माधव विलोकन काज मन के मोद सो मानहु मढ़ीं।
घनस्याम अरु बलराम सँग लखि ग्वाल बालन आवते।
लागे तिनहि के संग बहु नागरिक सोर मचावते॥२०॥
जय देवकी सुत जयति जय बसुदेव सून महा बली।
स्वागत करें इत आप को हम लोग सब भातिन भली।
देवी मुखन आकासवानी सुनि रही आसा लगी।
इत लहि उपद्रव कंस दुख सों दहकि वह अतिसय जगी॥२१॥
यह आपको आगमन वाके शमन के हित आज है।
धनु यज्ञ उत्सव हित निमंत्रण तो निरो इक व्याज है।
तुमरे हतन हित हैं रचे इत इन अनेक समान हैं।
पर एक वाधा करत नहिं जो कोऊ पुरुष प्रधान हैं॥२२॥
कहँ राम कहँ धनु ताड़का खरकुम्भकरनादिक बली।
दूषण तृशिर घननाद रावण पै न काह की चली।
त्यों आपहूँ कहँ कोऊ बाधा करि सकै गो इत नहीं।
वरिहै विजश्री आपहूँ कहँ श्याम सुन्दर तैसही॥२३॥
इहि भाँति सोर अथोर चारहुँ ओर सों बाढ़यो महा।
सुनि जाहि दौरे लोग सब जिहि भाँति सो जो जहँ रहा।
नारी अटारिन पै चढ़ी लै लाज कर बरसावतीं।
सुनि धुनि किती तजि लाज काज समाज धावत आवतीं॥२४॥
जे रहीं जैसी आय वे वैसी जुरी खिरकीन पै।
इक एक के ऊपर परति गिरि निरखतीं तिय तीन पैं॥
कोउ एक दृग आँजी न दूजो आँजि आईं धाय के।
कोउ लाय जावक एक पग उठि चलीं ताहि बहाइ कै॥२५॥
कोउ एक कुच पै कंचुकी कसि एक कर पकरे चलीं।
कोउ एक चोटी बाँधि कर सों शेष कच जकरे चलीं॥