पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१२३

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टिकि रहे नगर बाहर सुठौर।
सब निज सुपास कौ करन डौर॥२५०॥
रथ पैं लखि आवत राम स्याम।
बोले खोटो तुम कियो काम॥२५१॥
तजि वृज आये तुम दोउ भाय।
नहिं आवन की निश्चय कराय॥२५२॥
सुनि गोपन की यों महा सोर।
हँसि के बोले जसुदा किसोर॥२५३॥
हम आये इत तुम सबन काज।
सुनि तुम पय भय को गिरत गाज॥२५४॥
तिहि चहत निवारन इतै आय।
मति मानहु मन मैं कोउ कुभाय॥२५५॥
सब कहयो भलो जब गये आय।
तब उतरौ आओ दोऊ भाय॥२५६॥
तब मन मोहन मृदु मुसकुराय।
अक्रूरहि बोले यों बुझाय॥२५७॥
मधुपुरी पधारौ आय तात।
मिलि कंसराय सों कहहु बात॥२५८॥
हम इत उन आदेसानुसार।
आये बसि निसि होतहिं सकार॥२५९॥
ऐहैं निरखन उत्सव अनूप।
हरखित झै हैं लखि कंस भूप॥२६०॥
अक्रूर कहयो बस ह्वै सनेह।
चलि निवसहु निसि मम आज गेह॥२६१॥
इत सो उत कछु मिलिहै अराम।
है उचित न अस हँसि कहयो स्याम॥२६२॥
ऐहैं कबहूँ उत समय पाय।
नहिं आज संग साथिन बिहाय॥२६३॥