पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/११८

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गैयन गवने मग दोऊ जात।
बतरात परस्पर मुस्कुरात॥१८०॥
गवन्यो आगे दल रह्यो जौन।
पहुँच्यो बढ़ि आगे कछू तौन॥१८१॥
आगे आगे हे नन्दराय।
जिन पीछे ग्वाले रहे जाय॥१८२॥
तिन पीछे शकट अनेक जात।
पीछे सबके स्यन्दन सुहात॥१८३॥
जा पै अक्रूर रहयो विराजि।
गवनत मथुरा हिय रहयो लाजि॥१८४॥
लखि इत मग फुटत अन्या ओर।
रथ रोकि लियो तिन तहाँ थोर॥१८५॥
सोचन लाग्यो अब कितै जाँव।
मथुरा मैं तो नहिं मोहि ठाँव॥१८६॥
जा काजहिं भेज्यो कंसराय।
मो सँग न कृष्ण बलदेव पाय॥१८७॥
मारिहै मोहि लै कर कृपान।
सुनि है न कैसहूँ बात आन॥१८८॥
या सों चलिबो उत ठीक नाहि।
हैं बहुतेरे थल जगत माँहि॥१८९॥
जहँ रहि कोउ विधि जीवन बिताय।
हम सकहिं भला तब कौन जाय॥१९०॥
मथुरा मैं मरिबे कंस हाँथ।
विन धरे महा अघ मोट माँथ॥१९१॥
है ठीक देइबो त्यागि देस।
सहि लेबो और कोउ कलेस॥१९२॥
पै निपट अनोखी एक बात।
नहिं कारन कछु जाको जनात॥१९३॥