पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/११६

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भाई सब के मन यहै बात।
मिलि भई सबै तिहि ओर जात॥१५२॥
इत पहुँचि स्याम सुरभीन पास।
देख्यो उन सब कहँ अति उदास॥१५३॥
लागे सुहरावन कोउ जाय।
कोउ कियो प्यार गर उर लगाय॥१५४॥
कोउ को मुख चूमत कहत स्याम।
कोउ सों पूछत लै तासु नाम॥१५५॥
का कहत अमृतधारा बनाय।
देऊँ तो बन्धन खोलि आय॥१५६॥
निजकर छोरयो कोउ आय जाय।
अरु कह्यो गोपगन सों बुलाय॥१५७॥
तुम कियो व्यर्थ इनको अकाज।
छोरयो नहिं अब लौं गाय आज॥१५८॥
अब छोरहु इन बन बेगि जाँय।
जल पियें हरो तृन चरै खाँय॥१५९॥
देखहु रजनी चन्दा दुहुन।
छोड़ियो न इन लखि विपिन सून॥१६०॥
मोती मूँगा सोना चराय।
अति जतन सहित नित इत लयाय॥१६१॥
बांधियो ख्याइयो धोय पोंछि।
निज हाथन माथन सिर अँगौछि॥१६२॥
ये अतिसय प्यारी मोहि गाय।
विलखें नहिं कैसहुँ क्लेश पाय॥१६३॥
जा जा धौरी वन चरन काज।
धूमरी अरी इत कहा आज॥१६४॥
जा छीर देह री चरि अघाय।
बछरा तुव रह्यो उतै बुलाय॥१६५॥