पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१११

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अस कहि कीनो झुकि कै प्रनाम।
फिर चले नन्द ढिग घनस्याम॥८२॥
बोले तिन सों मृदु मुसकुराय।
क्यों बाबा रहे विलम लगाय॥८३॥
मधुपुरी पधारौ तुमहुँ संग।
लै ग्वालन को दल बल सुढंग॥८४॥
गौवन छोरन हित हमहुँ जात।
वे चरिबेहित व्याकुल लखात॥८५॥
मुख चूमि नन्द कहि श्री गनेस।
गवने लै सँग ग्वालन असेस॥८६॥
ह्वै मन प्रसन्न धरि सीस भार।
गवने सब सजि सुन्दर प्रकार॥८७॥
संग लागे केते ग्वाल बाल।
गावत हरषित कर देत ताल॥८८॥
यों कह्यो गोप गोपिन बुझाय।
सब करौ काज तुम गृहन जाय॥८९॥
जैहैं नहिं उत अब राम स्याम।
इतहीं विराजिहैं नन्द धाम॥९०॥
हम द्वै दिन मथुरा मैं विताय।
मिलि सबै पहुँचिहैं इतै आय॥९१॥
ग्वालिनी भई हरषित महान।
करि श्रवनन सों वच सुधा पान॥९२॥
मुख पंकज सब के एक संग।
आनन्दित बदल्यो सुरुचि रंग॥१३॥
पुनि लगे अधर मृदु मुस्कुरान।
लागे चलिबे चख चोख बान॥९४॥
फिरि होन तनैनी लागि भौंह।
बोली कोउ सों इक खाय सौंह॥९५॥