पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१०७

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कोउ कहति अरी यशुदा अयानि।
तू करति कहा नहि सकल जानि॥१२॥
पठवत मथुरा निज द्वै कुमार?
जो हम सब को जीवन अधार॥१३॥
होतहि इनके दोउ दृगन ओट।
लगिहै हम कह सब जगत खोट॥१४॥
बचिहै तेरो किहि भॉति प्रान।
का समुझि देत तू तिन्है जान॥१५॥
धरि सकिहै तू किहि भॉति धीर।
सकिहै सहि कैसे दुसह पीर॥१६॥
मिलि कहत गोपिका ताहि घेरि।
ऐहै नहि समुझन समय फेरि॥१७॥
जनि देय उतै तू इन्है जान।
येई हम सब के समुझि प्रान॥१८॥
कैसो कठोर हिय हाय कीन।
जल बिन जीहै किहि भॉति मीन॥१९॥
तू समुझति नहि ग्वालिन गवारि।
वेगहि इन जैवै तै निवारि॥२०॥
कछु देत न उत्तर नन्दरानि।
लेती उसास धरि सीस पानि॥२१॥
कोउ कहत गोपिका कितै स्याम।
भाग्यो तौ लै नहि सग राम॥२२॥
गहि रोको वाको कोऊ धाय।
छिपि भजन वह करि कोउ उपाय॥२३॥
यो चली ग्वालिनी सखिन टेरि।
बहु रही नन्द मन्दिरहि घेरि॥२४॥
कोउ कहत जात लखि राम स्याम।
धरि लीजो तिहि मिलि सकल बाम॥२५॥