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प्रिया-प्रकाश


चंद जू के चहूं काद बेष परिवषे कैसो, देखतही रहिये न कहिये बचन साजि । धाप छाँडि आपनिधि जानि दिसि दिसि रघु- नाथ जू के छत्र तर भ्रमत भ्रमीन बाजि ॥७॥ शा-- अहातात = बनेठी से उत्पन्न । चक्रमन भ्रमण, चकर । श्रातुरीजी । काद--ओर । परिवेष ज्योतिमंडल सफेद वृत्त जो चाँद के गिर्द कभी कभी दिखाई देता है। धाप-दीड़ का मैदान । भ्रमीन : भ्रमणकारी। भावार्थ:- श्री राम जी का भ्रमणकारी धोड़ा दौड़ छोड़ कर और हर ओर समुद्र का प्रातिल जान कर रामजी के छत्र के नीचे ही घूमता है । वह ऐसा मालूम होता है मानो उसके दोनों और मुख है क्योकि उसकी पलद ( इतनी शीघ्रता से होती है कि ) मालूस नहीं हाता कि वह कर पलट गया। उसका भ्रमण देख कर, बजेठी से उत्पन्न चक्रवत् ज्योति लजित होकर मंद पड़ जाती है। केशव कहने हैं कि कुशल कुम्हार के बाक के भ्रमण की तेजी उसकी चातुरी देखकर भाग जाती है। चंद्रमा के चारो ओर परिवेष का सा घेरा देख कर देखने ही बनता है, कुछ कहते नहीं बनता। ३- कुटिल वर्गन) भूल --- पालक, अलिक, भू, कुंचिका, किंशुक, शुकमुख लेखि । अहि, कटाक्ष, धनु, बीजुरी, कंकरण भग्न दिशाखि ! ८ ॥ शब्दार्थ-अलिक = ललाट। कुंजिका=बोस की टहनी । कंकणभन्न = चूड़ी का टुकड़ा।