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प्रिया-प्रकाश


होने स इसमें शृङ्गार रस प्रतिपादित नहीं हो सकता। कोई रस सभी प्रतिपादित होता है जब रस चारो अंग स्पष्ठ भासित होते हो । अतः यह हीनरस दोष हुना। ३-(यतिभंग दोष) मूल-और चरण बरण जहूँ, और चरण सों लीन । सो यतिभंग कवित्त कहि केशवदास प्रवीन ॥४०॥ भावार्थ-जहाँ किसी चरण के कुछ अक्षर उसके श्रागे वाल चरण में गने जायें, जैसे:- मूल-हरहरि केशय मदन मो हन घनश्याम सुजान । ज्यों ब्रजवासी द्वारका. नाथ रटन दिन मान ॥४१॥ (विवेचन)-'मदन मोहन' एक शब्द है, पर यहाँ 'मदनमो' पहले चरण, मैं और 'हन' दूसरे चरण में है। इसी प्रकार 'द्वारका- नाथ शब्द के दो टुकड़े होकर दोनों चरणों में हैं, यही यति भंग दोष है। ४---(व्यर्थ दोष) मूल -एक कवित्त प्रबन्ध में, अर्थ विरोध जु होय । पूरब पर अनमिल सदा, ब्यर्थ कहैं सब कोय ॥४२॥ भावार्थ-जहाँ एक ही छंद में पूर्वापर विरोध हो । जैसे :- मूल --सब शत्रु सँहारहु जीव न मारहु सजि योधा उमराव । बहु वसुमति लीजै, मो मति कीजै, लीनै आपन दाँव । काउ न रिपु तेरो सब जग हेरो तुम कहियत अतिसाधु । कछु देहु मँगाबहु भूस्व भगावहु हो तुम धनी अगाधु ॥४॥