(आगे उसके उदाहरण देते हैं)
मूल-अमल जुन्हाई चन्द्रमुखि ठाढ़ी भई अन्हाय ।
सौतिन के मुख कमल ज्यौं देखि गये मुरझाय ॥३७॥
भावार्थ-सरलही है।
(विवेचन)--इस दोहे में 'न्ह' संयुक्त अक्षर हैं, अतः छंद ३३ के
अनुसार उसके पहले के अक्षर 'जु' और 'अ' गुरु माने जाने
चाहिये । पर ये अक्षर यहाँ गुरु हैं नहीं । लधु ही हैं।
नोट- केशव ने इसका समझना प्रकाशमल (ज्ञानपल) पर छोत्र
है, पर हमारा अनुभव प्रत्यक्ष नियम बताता है कि जहाँ न'
और संयुक्त होकर न्ह' के रूपसे आवै वहाँ उसके पहले का अ-
क्षर गुरु न होकर लधु ही होगा-जैसे---कन्हाई, जुम्हाई,अन्हाई
इत्यादि में, और जब 'ल' और 'ह' संयुक्त होकर 'ल्ह' रूप से
आवें तब भी कहीं ऐसा होगा कहीं न भी होगा, जैसे--
कुल्हाड़ी,में 'कु' लघु ही है पर कुल्हड़, और कल्ह में 'कु'
और 'क' शुरु माने जाते हैं। यहाँ तक गन अगन दोष का
निर्णय हुआ। आगे दोहा नं० १५ में कथित होनरसादि दोषों
का विवरण देते हैं।
२-( हीनरस दोष का वर्णन )
मूल-बरनत केशवदास रस, जहाँ विरस
जाय।
ता कबित्त सो हीनरस, कहत सबै कबिराय ॥३८॥
भावार्थ-जहाँ कहीं किसी रस का वर्णन करते करते कोई
बात उस रस के बिरुद कह डाली जाय, उसे हीनरस दोष
कहते हैं, जैसे:-
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प्रिया-प्रकाश