पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/४३२

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सोरहवां प्रमाष (नोट)-कोई दूतो नायिका को अभिसार कराकर नायक के पास ले जाना चाहती है। नायक रूठ कर पर्वत पर जा बैठा है, वहां ले जाना चाहती है। भावार्थ-वह नायक युवा है, भेस सहित है ( वस्त्र भूषणादि से सजा है) और तेराही स्वदेशी है (तेरेही गांव का रहने वाला है), सो उसको अपने रस से (प्रेम से) ऐसा वश करले कि उसका प्राण घातक मान (कठना) नाश हो जाय। हे युवती कामिनी ! तू अपनी युवती फैस का फल (पुरुष संग) यहां चिरकाल तक ले, क्योंकि यहां पशु पक्षी शब्द नहीं करते ( अर्थात् निर्जन स्थान है ) वहीं तो चित चाही बात बन पड़ेगी । हे स्त्री ! यह बन एक कोस के घेरे में है और भय से भरा है (भयंकर है) अतः वहां कोई नाता जाता नही, पर तू धीरज धरे रहना ! पर्वत पर बैठी हुई, प्रेम मय नपान शोभा से शोभित होना, सो ले अब चल, यही सुअवसर मैंने अच्छा समझा है। (नोट)इसके और भी अनेक अर्थ अपनी अपनी विद्या बुद्धि के अनुसार किये जा सकते हैं। मूल-सूधी उलटो बांचिये एकहि अर्थ प्रमान । कहत गतागत ताहि कवि केशवदास सुजान ॥ ६६ ॥ भावार्थ-किसी छंद के एक एक चरण को चाहे सीधा पढे चाहे उलटा पढ़े, अर्थ एकही रहै, उसे भी 'गतागत' कहते हैं। (यथा) मुल -मासम सोह, सजै बन, बीन नबीन बजे, सहसोम समा। मारलतानि बनावति सारि रिसाति बनावनि ताल रमा ।