पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३८८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रिया-प्रकाश समझता है कि मैं नास्य कला का बेहद ज्ञान रखता हूं (पर तू नाचना नहीं जानता)। तू जैसा नाचता है उसी के बराबर श्रादर पाता है ( अर्थातू अच्छा नाच महीं मोचता अतः फल भी नहीं पाता ) तो भी अहंकार के विमान में चढ़ा दौड़ता है । तात्पर्य यह है कि तेरे कृत्य अच्छे नहीं, इसी से तुझे सुख नहीं मिलता तो भी तुझे घमंड है कि त् अच्छा पुण्यात्मा है और बहुत सुखी है। (पुनः) मूल- कुमति हारि संहारि हठ, हितहारिनी प्रहारि । कहा रिसात बिहारि बन, हरि मनुहारि निहारि ॥ ३१ ॥ शब्दार्थ-हारि-दूर कर दे। हितहारिनी - अनिकारिणी! प्रहारि खूब दण्ड दे। मनुहारिनन मनायन, खुशामद । निहारि-देख। भावार्थ-दुर्मति को दूर कर दे, हठ को मार डाल, अनिष्ट- कारिणी सखियों को (युगुलखोर लोगों को) खूब दण्ड दे। क्यों मान करती है, वृष्ण की खुशामद को देख और उनके साथ बन में बिहार कर। (नोट)-इस में 'हारि' शब्द विविध रूप से अनेक अर्थ देता है। मूल-सुत तरवर मै रंभा बनी। सुरत रख रमै रंभा बनी। सुर-तरंगिनी कर किंनरी । सुरत रंगिनीकर किंगरी ॥३॥ शब्दार्थ-सुर तरवर मै= पारिजात वृक्ष शुरू। रंधावनी कद- लीपन। सुरत रख अपने ही भान बाय के शब्द में रत । रमै ।