पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३६३

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प्रिया-प्रकाश (यथा) मूल-केशोदास प्रगट अकास में प्रकास मान, ईश हू के शीश रजनीश अवरेखिये । थल थल जल जल अमल अचल अति, कोमल कमल बहु बरण बिशेपिये ।। मुकुर कठोर बहु, नाहिनै अचल यश, बसुधा सुधाइ तिय अघरन लेखिये । एक रस एक रूप जाकी गीता सुनियत, तेरो सो बदन सीता ! तोही बिधे देखिये ॥२६॥ शब्दार्थ-ईश शिव रजनीश चंद्रमा । अपरेखिये देखते हैं। बहु = बहुत से । गीताप्रशंसा। भावार्थ-(यदि कहें कि चंद्रमा तेरे मुख सम है तो नितान्त झूठ है क्योंकि ) प्रथम तो भाकाश में प्रगट ही चंद्रमा को कलंकित देखते हैं, अलावा इसके शिव के सिर पर भी तो चंद्रमा है (जो निष्कलंक तो है पर अति क्षीण है)। और कमल तो जगह जगह प्रति जलाशय में निर्मल अचल और कोमल तथा बहुत वर्ण के हजारों पड़े हुए हैं ( वे भी मुख के समान नहीं हो सकते)। आईने कठोर होते हैं और संसार में हजारों भरे हैं, और उनका यश भी अचल नहीं क्योंकि उनसे भी जंग लगता है ( चमक बिगड़ जाती है)। और अमृत तो संसार की अनेक स्त्रियों के होठों में पाया जाता है ( अतः वह भी एक साधारण वस्तु है)। हे सीता!