पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३३९

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प्रिया-प्रकाश कृष्ण की रूप छटा के प्रकाश से चारो ओर प्रकाश फैला है जिसका विलास (सौन्दर्य) कुछ कहा नहीं जाता। हे भामिनी ! यह तेरा नवीन और अनेक भाँति से सुसजित भवन भी कृष्ण के स्वाभाविक सौन्दर्य से अच्छी शोभा को धारण कर रहा है (बिना कृष्ण के यह सुन्दर भवन अँधेरा हो जायगा अतः मान छोड़ कर इन्हें यहीं रखले )। हे मानिनी ! मान समेत मानिनी नायिकाओं को वशकर्ता मेरा दीपक (प्या- चंद्र) तेरे मन को भी दीप्तमान कर रहा है ( चाहे तू मान या समान ) अर्थात् तू मन से कृष्ण को चाहती है पर ऊपर से दिखावटी मान किये हुए अब आगे 'पवन' नामकद्रव्य (बस्तु )का बर्गन देखिये और परिभाषा में मिलाकर समझिये। (पुनः) मूल-दक्षिण पवन दक्षि यक्षिणी रमण लगि, लोलन करत लैंग लवली लता को फरु । केशोदास केसर कुसुम कोश- रसकण, तबु तनु तिनहू को सहत सकल भरू । क्योंहूं कहूँ होत हठि साहस बिलास बश, चंपक चमेली मिलि मालती सुबास हरु । शीतल सुगंध मंद गति नंदनंद की सौं, पावत कहां ते तेज तेरिबे को मानतरु ॥ २६ ॥ शब्दार्थ-दक्षिदक्षिण नायक सम। यक्षिणीरमण लगि = यक्षिणियों के रमने के स्थान तक-हिमालय तक । लोलन