साथ एकहीं गुरु से पढ़ी है ( जब रंगराय मृदंग बजाती है,
तब रंगमूरति उसी के ताल के अनुसार नाचती है)
मूल अंग जिते संगीत के, गावत गुणी अनंत ।
रँगमूरति अँग अंग प्रति, राजत मूरतिवंत ॥ ५५ ॥
भावार्थ-संगीत शास्त्र के जितने अंग हैं और जिन्हें असंख्य
गुणी जन गाते हैं ये सब रंगमूरति के अंगों में भूतमान हैं
(अर्थात् रंगमूरति संगीत में अत्यंत प्रवीण है)।
मूल-नाचति गावति पढ़ति सब, सबै बजावति धन ।
तिनमें करति कवित्त इक, राय प्रबीन प्रवीन ! ५६ ॥
भावार्थ -सरल ही है।
मूल रायप्रवीन प्रबीन सों, परवीनन मन सुःख ।
अपरवीन केशव कहा, पर बीननि को दुःख ॥ ५७ ॥
प्रवीन प्रष्ट बीणा, अति उत्तम बीणा।
परबीनन प्रवीण लोग । अपरबीत अपवीण, नादान ।
पर विरोधी, हरीक, शत्रु । बीननि- वीणाओ।
भावार्थ-रायप्रबीन की उत्तम धीणा से प्रवीण जनों के मन
को सुख प्राप्त होता है। केशव दास कहते हैं कि अप्रवीण चेतन
जनों की तो बात मैं नहीं कह सकता कि उनपर क्या प्रभाव
पड़ता है, परयह निश्चित है कि विरोधियों की (जड़) बीणाओं
तक को दुःख होता है (कि ऐसी सुघर बजाने वाली के हाथ
से बजाये जाने का सौभाग्य हमें न प्राप्त हुआ ) तात्पर्य यह
कि. प्रवीनराय वीणा बजाने में अति प्रवीण है।
शब्दार्थ-
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प्रिया-प्रकाश