पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२७१

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२६४ प्रिया-प्रकाश सुनि बाजति बौन प्रवीन नवीन सुराग हिये उपजावति सी। कहि केशवदास प्रकास विलास सबै बन शोभ बढ़ावति सी ॥४१॥ ( ब्याख्या ) अर्थ तो इसका स्पष्ट है । इसमें 'बन' शब्द शिलष्ट है जिसके तीन अर्थ यहां लेना चाहिये (१) जंगल, (२) धर, (३) बाग। तात्पर्य यह है कि कोकिल का कूकना ( बाग में ) मंजु भाषिणी कामिनी का बातें करना (घर में ) और किसी प्रवीण के हाथ से नवीन बीन का बजना (जंगल में), उस स्थान की शोभा ही बढ़ावैगा। अर्थात् अनेक क्रियाओं का फल एकही होगा। अतः इसकी परिभाषा यो होनी चाहिये:-- जहां क्रियायें भिन्न भिन्न हों, पर उनका फल एक हो और श्लेष भी हो, उसे भिन्न क्रिया श्लेष कहेंगे । (सूचना)-किसी किसी प्रति में इसका नाम 'विरुद्ध क्रिया श्लेब' पाया जाता है। यदि यही नाम शुद्ध माना जाये, तो 'विरुद्ध' का अर्थ यहां पर भिन्न ही लेना उचित होगा, क्योंकि उदाहरण में कूकना, बोलना और बजना क्रियायें न तो परस्पर विरोधी हैं और न फल की क्रिया “शोमा वहाना" के ही बिरुद्ध हैं। यदि क्रियायें परस्पर विरोधी होती तो यह अलंकार अर्वाचीन ब्यावात अलंकार का दूसरा भेद होजाता! ३-(विरुद्ध कर्मा श्लेष) मूल-दोळ भगवत तेजवंत बलवंत दोऊ, दुहुन की बेदन बखानी बात ऐसी है। दोऊ जानें पुन्य पाप, दुहुन के ऋषि बाप, दुहुन की देखियत मूरति सुदेसी है।