पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२५३

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२४५ ग्यारहवाँ प्रभाव हवनादि को पसंद करते हैं, जिनके हृदय में नारायण बसते हैं जिन्हे जान्हवीजल भाता है और जो संसार का श्रादि कारण हैं। ईश्वर की शपथ है, केशवदास देख देख कर कहता है कि ये राना अमरसिंह हैं, या शिव हैं। (नोट)-वास्तव में राना अमरसिंहजी की प्रशंसा से तात्पर्य है। शब्दार्थ---(समुद्र पक्ष)-परम विरोधी रहत सब= ( इसी अंध के ज्वे प्रभाव में समुद्र वर्णन में समुद्र को “पन्नग देव अदेव ग्रह" और "है किधौ केशव कश्यप को घर देव अदेवन को मन मोहे" कहा है। दानिन के दानि- कल्पक्ष, कामधेनु, लक्ष्मी इत्यादि दूसरों को मन चाहे पदार्थ देते हैं, पर संसार को समुद्र ही ने ये बस्तुएं दी हैं, अतः समुद्र दानियों का भी दानी है । कवि केशव नारायण जिसके कबि हैं, नारायण भी जिसका प्रशंसामय वर्णन करते हैं। प्रमान है - यह बात अति सत्य है। आप = जल । अनंत - शेषनाग । निरक्ष अरक्षित । क = जल । निधान- खज़ाना । हुतभुक = बड़वा- नल । श्रीपति = नारायण । निदान = आदि कारण (जलही से पृथ्वी की उत्पत्ति मानी जाती है) भाषार्थ-जहां परम विरोधी (देव, दैत्य, विष, सुधादि ) भी भित्र सम रहते हैं, जो कल्पवृक्ष कामधेनु आदिक का भी उत्पादक है, जिसकी सत्य प्रशंसा स्वयं केशव (जलशाई नारायण ) वर्णन करते हैं, जिसका जल अनंत से भी अधिक है ( शेषनाग 'अनंत' कहला कर भी जिसमें डूबे रहते हैं), जिसमें अनंत ( शेषनाग ) भी रहते हैं, जो अशरणों को शरण देता है ( मैंनाक, बहुधाग्नि को शरण दी है ) अथवा अशरण जा नारायण हैं (जिनको कोई शरण नहीं दे सकता) उनका