पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२४५

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ग्यारहवाँ प्रभाष संस्कार, श्रृंगार । १८ के लिये पुराण । २० के लिये नख । २७ नक्षत्र। ३२- लक्षण । ४६- पवन। ६४ कला। ८४-आसन। ( उदाहरण) मूल-एक थल थित पै बसत प्रति जन जीय, द्विकर पै देश देश कर को धरनु है । त्रिगुन कलित बहु बलित ललित गुन, गुनिन के गुनतरु फलित करनु है ।। चारही पदारथ को लोभ चित नित नित, दीबे को पदारथ समूह को परनु 1 केशोदास इन्द्रजीत भूतल अभूत, पंच- भूत की प्रभूति भवमूति को शरनु है ॥२२॥ शब्दार्थ-निगुण कलित बहु बलित ललित गुण = सत रज तम से उत्पन्न अनेक सुन्दर गुणों से युक्त हैं। परनुप्रण, प्रतिक्षा = पंच भूत की प्रभूति = पंच तत्वों से उत्पन्न । भव- भूति = सृष्टि । शरण = रक्षक । भावार्थ-राजा इन्द्रजीत रहते तो एक स्थान पर हैं, परन्तु प्रत्येक जीवधारी के जी में बास किये हैं। उनके हैं तो दो ही हाथ, पर देश देश के लोगों के हाथों को पकड़े हैं ( मित्रता किये हैं )। वे त्रिगुण से उत्पन्न अनेक अच्छे गुणों से युक्त हैं, और गुणियों के गुण रूपी वृक्षों को सफल करने वाले हैं। 'चे चाहते हैं केवल चारही पदार्थ, पर पदार्थ समूह देने का प्रण किये झुऐ हैं। केशवदास कहते हैं कि राजा इन्द्रजीत जू