पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/१९५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

निया-प्रकाश उमाप खोजने से नहीं मिलती। काम की दुलही- रति । उलही = पैदा हुई है । ललित =सुंदर । लोल-चंचल । भावार्थ-गोरा गोरा शरीर है, कृशांगी है, बड़े बड़े नेत्र हैं, और कुचों की बात क्या कहं ये तो ऐसे हैं कि उनकी तस- वीर हृदय में बना लेना चाहिये। (अन्य उरजासन की बात उर अवरोहिये)। वह हंसते हुये बात कहती है, मानो फूल झडते हैं, गोरे गोरे ओठों पर पान की लाल रेखा है जो मन को मोहती है। श्याम रंग की कपूरधूर की ओढ़नी श्रोढ़े है वह ऐसी है जैसे कपूर की धूर उड़कर अंग में लग गई हो, उसकी उपमा खोजना व्यर्थ है। वह रति के समान सुन्दरी न जाने किस के कुल में पैदा हुई है और लहलहाती हुई सुन्दर लता के समान चंचल है। २-(विभाचनालंकार) मूल-कारज को बिनु कारणहि, उदी होत जेहि ठौर । तासों कहत विभावना, केशव कवि शिरमौर ॥ ११ ॥ भावार्थ-बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति कही जाय वहाँ विभावना जानो। (ETRIT) मूल-पूरन कपूर पान खाये कैसी मुखवास, अघर अरुण रुचि सुधा सों सुधारे हैं। चित्रित कपोल, लोल लोचच, मुकुर, एन, अमल झलक, झलकनि मोहि मारे हैं। भृकुटी कुटिल जैसी तैसी न करे हू होहिं, आंजी ऐसी आंखें केशोराय हेरि हारे हैं।