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प्रिया-प्रकाश


कृष्णदन मिश्रहिं दई जिन पुराण की वृत्ति ॥ १८ ॥ भरतखंड मंडन भये तिनके भारतिचंद । देस रसातल जाल जिन फेरयों ज्यों हरिचंद ॥ १६ ॥ सेरशाह असलेम के उर' साली समसर । एक चतुर्भुजही नयो ताको सिर तेहि बेर ॥ २० ॥ भावार्थ---राजा भारतीचंद ने शेरशाह असलेम के आक्र- मणों से बुन्देलखंड की रक्षा की थी। ओरछा में चतुर्भुज नारायण का मंदिर था। उनके सिवाय किसी को सिर नहीं झुकाते थे ( नोट ) यह शेरशाह असलेम उसी शेरशाह सूर का पुत्र था जिसने हुमायूं शाह को भारत से भगा दिया था। मूल-उपार्ज न पायो पुन तिहि गयो सु प्रभु सुरलोक । सोदर मधुकर साह तब भूप भये भुवलोक ॥ २१॥ जिनके राज रसा बसे केशव कुशल किसान । सिंधु दिशा नहिं वार ही पार वजाय निसान ॥२२॥ शब्दार्थ-रसा= पृथ्वी । सिंधु बुन्देलखण्ड और ग्वालि- पर राज्य की सीमाओं को पृथक करने वाली एक नदी। सिंधु..."निसान-मधुकरशाह ने सिंधु नदी की ओर केवल नदी के इस ओर ही नहीं वरन् उसपार ( ग्वालियर राज्यमें) भी अपनी विजय का डंका बजाया। वार पार नदी के किनारे जब कोई खड़ा हो तो उसके लिये वह तट धार है, और उस तरफ का तट पार' कहलाएगा।