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प्रिया-प्रकाश


देह जात, रूप जात, हाइन को पूरो रूप, रूपको रूपक बिधु बासर सँयोगी को । बुद्धिन की बीजुरी है, नैनन को धाराधर, छाती को घन्यार, तन घायन प्रयोगी को। उदर को बाड़वा अगिन गेह मानत हौं, जानत हौं हारा हियो काहू पुत्रसोगी को ॥ २२ ॥ शब्दार्थ सदागति - पवन ! रूप = ठठरी। रूपक समता, उपमा । विधुशसर संजोगी दिनका चंद्रमा । धारावर यादल | घरयारघंटा जिसे ठोककर समय सूचित किया जाता है । पुत्रसोगी जिसे पुत्र के मरजाने का शौक हो। भावार्थ-केशव जी कहते है कि पुत्रसोगी मनुष्य स्वासोंके लिये तो पवन ही है (उसके हृदयसे दीर्घ स्वासें चला करती हैं ), आयु के लिये शून्य है (गत आयु हो जाता है) और यदि कुछ दिन आयु भोग रहेगा भी ( जीता रहेगा) तो वह समय पापके प्रकाश सम ही होगा-(जैसे पाप भोग समय कष्ट ही होता है वैसेही उसका समय कटैगा )--इसकी देह दुर्बल हो जाती है, सौन्दर्य भी चला जाता है, केवल हाड़ों की ठठरी रह जाती है, उसका रूप ऐसा निष्प्रभ हो जाता है जैसे दिन का चन्द्रमा । वह बुद्धिके लिये बिजली सम चंचल हो जाता है-(एक सम्मति पर स्थिर नहीं रहता ), उसके नेत्र बादल हो जाते हैं-बहुत धांसू बहाता है-उसकी छाती परियार हो जाती है (छाती कूटा करता है ) और उसका शरीर तो घायो के लिये ही बना होता है। उसका उदर मानो बड़- वाग्नि का बर ही हो जाता है; और उसका हृदय सालो वन ही हो जाता है।