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तृतीय सर्ग

वरन कम्पित - शीश प्रदीप भी ।
कर रहा उनको बहु - व्यग्र था ।
अति-समुज्वल-सुन्दर - दीप्ति भी ।
मलिन थी अतिही लगती उन्हे ।।३६।।

जब कभी घटता दुख - वेग था ।
तव नवा कर वे निज - शीश को ।
महि विलम्बित हो कर जोड के ।
विनय यो करती चुपचाप थी ।।३७।।

सकल - मगल - मूल कृपानिधे ।
कुशलतालय हे कुल - देवता ।
विपद सकुल है कुल हो रहा ।
विपुल वाछित है अनुकूलता ॥३८॥

परम - कोमल - वालक श्याम ही ।
कलपते कुल का यक चिन्ह है ।
पर प्रभो! उस के प्रतिकूल भी ।
अति - प्रचड़ - समीरण है उठा ॥३९।।

यदि हुई न कृपा पद-कज की ।
टल नहीं सकती यह आपदा ।
मुझ सशकित को सव काल ही ।
पद - सरोरुह का अवलम्ब है ॥४०॥

कुल विवर्द्धन पालन ओर ही ।
प्रभु रही भवदीय सुदृष्टि है ।
यह सुमगल मृल सुटष्टि ही ।
अति अपेक्षित है इस काल भी ।।४१।।