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तृतीय सर्ग

दलन थी करती उस को कभी ।
रुदन की ध्वनि दूर समागता ।
वह कभी बहु थी प्रतिघातिता ।
जन - विवोधक-कर्कश - शब्द से ॥१२॥

कल प्रयाण निमित्त जहाँ तहाँ ।
वहन जो करते बहु वस्तु थे ।
श्रम सना उनका रव-प्रायश ।
कर रहा निशि-शान्ति विनाश था ।।१३।।

प्रगटती बहु-भीपण मूर्ति थी ।
कर रहा भय ताण्डव नृत्य था ।
विकट - दन्त भयकर - प्रेत भी ।
विचरते तरु - मूल - समीप थे ॥१४॥

वदन व्यादन पूर्वक प्रेतिनी ।
भय - प्रदर्शन थी करती महा ।
निकलती जिससे अविराम थी ।
अनल की अति-त्रासकरी-शिखा ॥१५।।

तिमिर - लीन - कलेवर को लिये ।
विकट - दानव पादप थे बने ।
भ्रममयी जिनकी विकरालता ।
चलित थी करती पवि : चित्त को ।।१६।।

अति - सशकित और सभीत हो ।
मन कभी यह था अनुमानता ।
ब्रज समूल विनाशन को खडे ।
यह निशाचर है नृप - कंस के ॥१७।।