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प्रियप्रवास

अवश तुल्य पड़ा निशि अंक मे ।
अखिल-प्राणि-समूह अवाक था ।
तरु - लतादिक बीच प्रसुप्ति की ।
प्रबलता प्रतिविम्बित थी हुई ।।६।।

रुक गया सब कार्य - कलाप था ।
वसुमती-तल भी अति - मूक था ।
सचलता अपनी तज के मनो ।
जगत था थिर हो कर सो रहा ।।७।।

सतत शब्दित गेह समूह मे ।
विजनता परिवर्द्धित थी हुई ।
कुछ विनिद्रित हो जिनमे कही ।
झनकता यक झीगुर भी न था ।।८।।

वदन से तज के मिष धूम के ।
शयन - सूचक श्वास- समूह को।
झलमलाहट - हीन - शिखा लिये ।
परम - निद्रित सा गृह - दीप था ।।९।।

भनक थी निशि - गर्भ तिरोहिता ।
तम - निमज्जित आहट थी हुई ।
निपट नीरवता सब ओर थी ।
गुण-विहीन हुआ जनु व्योम था ॥१०॥

इस तमोमय मौन निशीथ की ।
सहज-नीरवता क्षिति - व्यापिनी ।
कलुषिता व्रज की महि के लिये ।
तनिक थी न विरामप्रदायिनी ॥११॥