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संस्कृत के समस्त काव्य-ग्रंथ अतुकान्त अथवा अन्त्यानुप्रासहीन कविता से भरे पड़े है। चाहे लघुत्रयी, रघुवंश आदि, चाहे वृहत्रयी किरातादि, जिसको लीजिये उसी में आप भिन्नतुकान्त कविता का अटल राज्य पावेगे। परन्तु हिन्दी काव्य-ग्रंथो मे इस नियम का सर्वथा व्यभिचार है। उस में आप अन्त्यानुप्रासहीन कविता पावेंगे ही नहीं। अन्त्यानुप्रास बड़े ही श्रवण-सुखद होते है और कथन को भी मधुरतर बना देते है। ज्ञात होता है कि हिन्दी-काव्य-ग्रन्थो में इसी कारण अन्त्यानुप्रास की इतनी प्रचुरता है। बालको की बोलचाल मे, निम्न जातियो के साधारण कथन और गान तक में आप इसका आदर देखेगे; फिर यदि हिन्दी काव्य-ग्रन्थो में इसका समादर अधिकता से हो तो आश्चर्य क्या है? हिन्दी ही नहीं, यदि हमारे भारतवर्ष की प्रान्तिक भाषाओं—बँगला, पंजाबी, मरहट्ठी, गुजराती आदि—पर आप दृष्टि डालेगे तो वहाँ भी अन्त्यानुप्रास का ऐसा ही समादर पावेगे; उर्दू और फारसी में भी इसकी बड़ी प्रतिष्ठा है। अरबी का तो जीवन ही अन्त्यानुप्रास है, उसके पद्य-भाग को कौन कहे, गद्य-भाग में भी अन्त्यानुप्रास की बड़ी छटा है। मुसलमानो के प्रसिद्ध धर्म्मग्रथ कुरान को उठा लीजिये, यह गद्य-ग्रन्थ है, किन्तु इसमे अन्त्यानुप्रास की भरमार है। चीनी, जापानी जिस भाषा को लीजिये, एशिया छोड़ कर यूरोप और अफ़्रिका में चले जाइये, जहाँ जाइयेगा वही कविता में अन्त्यानुप्रास का समादर देखियेगा। अन्त्यानुप्रास की इतनी व्यापकता पर भी समुन्नत भाषाओं में भिन्नतुकान्त कविता आहत हुई है, और इस प्रकार की कविता मे उत्तमोत्तम ग्रंथ लिखे गये है। संस्कृत की बात मैं ऊपर कह चुका हूँ, बँगला मे इस प्रकार की कविता से भूषित 'मेघनाद वध' नाम का एक सुन्दर काव्य है।