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प्रियप्रवास

विलसती अब थी न प्रफुल्लता ।
न वह हास विलास विनोद था ।
हृदय कम्पित थी करती महा ।
दुखमयी ब्रज-भूमि - विभीपिका ।।५९।।

तिमिर था घिरता बहु नित्य ही ।
पर घिरा तम जो निशि आज की ।
उस विषाद - महातम से कभी ।
रहित हो न सकी ब्रज की धरा ॥६०॥

बहु - भयंकर थी यह यामिनी ।
बिलपते ब्रज भूतल के लिये ।
तिमिर मे जिसके उसका शशी ।
बहु - कला युत होकर खो चला ॥६१।।

घहरती घिरती दुख की घटा ।
यह अचानक जो निशि मे उठी ।
वह ब्रजांगण मे चिरकाल ही ।
बरसती बन लोचनवारि थी ॥६२।।

ब्रज-धरा-जन के उर मध्य जो ।
विरह - जात लगी यह कालिमा ।
तनिक धो न सका उस को कभी ।
नयन का वहु - वारि - प्रवाह भी ।।६।।

सुखद थे बहु जो जन के लिये ।
फिर नही ब्रज के दिन वे फिरे ।
मलिनता न समुज्वलता हुई ।
दुख-निशा न हुई सुख की निशा ॥६४॥
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