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द्रुतविलम्बित छन्द
गत हुई अव थी द्वि - घटी निशा।
तिमिर - पूरित थी सब मेदिनी ।
बहु विमुग्ध करी वन थी लसी ।
गगन मण्डल तारक - मालिका ।।१।।
तम ढके तरु थे दिखला रहे ।
तमस - पादप से जन - बुन्द को ।
सकल गोकुल गेह - समूह भी ।
तिमिर-निर्मित सा इस काल था ॥२॥
इस तमो - मय गेह - समूह का ।
अति - प्रकाशित सर्व - सुकक्ष था ।
विविध ज्योति-निधान-प्रदीप थे ।
तिमिर - व्यापकता हरते जहाँ ॥३॥
इस प्रभा - मय- मजुल- कक्ष मे ।
सदन की करके सकला क्रिया ।
कथन थी करती कुल - कामिनी ।
कलित कीर्ति ब्रजाधिप-तात की ॥४॥